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स्वर्गतः परम पुज्यनीय डाँ केशव बलिराम हेडगेवार

Tuesday, July 11, 2006

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Tuesday, May 30, 2006

स्वयंसेवक बन्धुओं

स्वयंसेवक बन्धुओं, तुमनें एक अत्यन्त पवित्र व्रत लिया है। उसका स्मरण करो। तुमने हिन्दू राष्ट्र को स्वावलम्बी तथा निर्भय बनाने का निश्चय किया है। और तुम अपने को सच्चे राषट्रवादी मानते हो। किन्तु क्या तुमने इसका भी विचार किया है कि अपने ध्येय और व्रत की तुलना में तुम्हारी तैयारी किस दर्जे की हैं?

सिध्दान्त और व्यवहार का समन्वय हम कुशलतापूर्वक अपने जीवन में प्रकट करें। इसी में मनुष्यत्व है, ऐसा मेरा दृढ विश्वास है। यदि हम व्यक्तिगत स्वार्थभावना को तिलांजलि दें, तो सिध्दान्त और व्यवहार का समन्वय आपही आप हो जाएगा। हमारा स्वार्थही हर समय हमारे कर्तव्य पथपर आपत्तियों के पहाड खडे करता है। अतः हमारे संघ बन्धुओं को चाहिये कि प्रथम वे स्वार्थ की क्षुद्रमर्यादा को पार करें।

हम हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये इतना कुछ कर जाये की हमारे पश्चात भी हिन्दूधर्म में चैतन्य बना रहे। हमें सौंपी गई यह धरोहर चोरों के हाथ न लगने पावे। हम सावधानी के साथ इसकी रक्षा करते रहें।

शाखा

हमारे आज के कार्यक्रम साधनरूप हैं। कई सज्जन इन्हीं कार्यक्रमों को संघ का उद्देश्य समझते हैं। किन्तु यह उनका भ्रम है। हमें अपने आचरण से इस अवधारणा को दूर करना होगा। देश में हमें एकसूत्रता और अनुशासन निर्माण करना है। इसका अर्थ यह नहीं कि लाठी काठी या सैनिक शिक्षा बिलकुल निरुपयोगी है। केवल इतनी ही बात है कि हमारे उद्देश्य की तुलना में, उपर्युक्त शिक्षा गौण है।

अपने ध्येय के अनुकूल लोगों को संगठित करना हमारा सबसे पहला कार्य है। जो मनुष्य अपने आप को सच्चा हिन्दू कहलता है, उसके पास पहुंचकर हम उसको अपनी आज की अवनति का ज्ञान करा दें। तथा उसे देशकार्य के लिये समुद्यत करें। ऐसे दस पांच हिन्दू इकट्ठे हो जाने पर उनका मुखिया नियुक्त करें। वह कुशल कर्णधार हो। इस प्रकार शहर में या देहात में, कहीं भी संघ का कार्य प्रारंभ किया जा सकता है। जब तक इस प्रकार की संघ शाखाओं का जाल सारे भारतवर्ष में नहीं फैलता है, तब तक हम यह नहीं कह सकेंगे, कि हमारा संगठन पूर्ण हो गया है।

उद्यम चाहिये

अन्य लोग इस कार्यको चाहे जितना कठिन बतलावें, परन्तु तुम स्वतः इन कठिनाइयों का रोना कभी ना रोवो। हमें तो वह कार्य कर दिखाना है, जिसका परिणाम देखकर संसार को दाँतो तले ऊंगली दबाकर ही रहाना पडेगा। क्या तुम्हे पता नहीं, कि संघ का प्रारंभ, कितने थोडे लोगों से हुआ?

हमारी अवनति के कारण

यदि हम शक्तिशाली होते, तो क्या किसी की हिम्म्त होती कि वे हम पर आक्रमण करने का दुःसाहस करते? या हमें अन्य किसी तरह से अपमानित करते? फिर हम क्यों दूसरों को दोष दें? यदि दोष हमारा ही है, तो हमें उसे स्वीकारना चाहिये और पनी कमजोरियों को तथा त्रुटियों को दूर करने में जुट जाना चाहिये।

कार्यकर्ताओं से अपेक्षा

निर्दोष कार्य करने हेतु, शुध्द चरित्र के साथ साथ आकर्षकता और बुध्दिमता का मणिकांचन योग भी साधना चाहिये। सच्चरित्र, आकर्षकता, और चातुर्य इन तीनों के त्रिवणी संगम से ही संघ का उत्कर्ष होता है। चारित्र्य के रहते हुए भी चतुराई के अभाव में संघकार्य हो नहीं सकता। संघकार्य सुचारू रूपसे चलाने के लिए हमें लोकसंग्रह के तत्वों को भलीभाँति समझ लेना होगा।

संघ सबका है

यह समझना भूल होगी की किसी विशिष्ट योग्य्ता अथवा उम्र का ही मनुष्य संघ के लिये उपयोगी है तथा जो वैसा न होगा वह संघ के लिये निरुपयोगी है।संघ के कार्यक्षेत्र में प्रत्येक की आवश्यकता है और प्रत्येक के लिये वहां काम है। क्योंकि संघ कार्य एक व्यक्ति का न होकर समाज के सभि व्यक्तियों का है।

संघ का ध्येय

संघ तो केवल, 'हिन्दुस्थान हिन्दुओं का' इस ध्येय वाक्य को प्रत्यक्ष में लाना चाहता है। हिन्दुस्थान देश केवल हिन्दुओंकाही है। जैसे अन्य लोगों के अपने देश हैं, वैसा ही यह हिन्दुओं का देश है। अतः संघ यह मानता है कि इस देश में जिसे हिन्दू कहेंगे, वही पूर्व दिशा होगी। यही एक बात संघ जानता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिये और किसी भी पचडे में पडने की कोई आवश्यकता नहीं है।

हिन्दू राष्ट्र

हिन्दू जाति का सुख ही मेरा और मेरे कुटुम्ब का सुख है। हिन्दू जाति पर आनेवाली विपत्ति हम सभी के लिये माहासंकट है और हिन्दू जाति का अपमान हम सभी का अपमान है। ऐसी आत्मीयता की वृत्ति हिन्दूमात्र के रोम रोम में व्याप्त होनी चाहिये। यही राष्ट्रधर्म का मूलमंत्र है।

केवल भूमि के किसी टुकदडे को तो राष्ट्र नहीं कहते। एक विचार, एक आचार, एक सभ्यता, एवम एक परम्परा से, जो लोग पुरातन काल से रहते चले आये हैं, उन्हीं लोगों से राष्ट्र बनता है। इस देश को हमारे ही कारण हिन्दुस्थान नाम दिया गया है।

हमलोगों में चाहे जितने ऊपरी मतभेद दिखाई दें परन्तु, हम सारे हिन्दू तत्वतः एक राष्ट्र हैं। हमारी धमनियों में एक - सा रक्त बह रहा है। हमारी पवित्र भाषा एक है। हमारे राजनीतिशास्त्र, समाजरचना और तत्वज्ञान एक है। इस प्रकार हमारे संगठन की नींव शास्त्रशुध्द है।

इंग्लैण्ड अंग्रेजों का, प्रान्स प्रान्सिसियों का, जर्मनी जर्मनों का देश है। इस बात को उपर्युक्त देशों के निवासी सहर्ष घोषित करते है। किन्तु इस अभागे हिन्दुस्थान के स्वामी हिन्दू, स्वयम् अपने को इस देश के अधिकारी कहने का साहस नहीं करते।

दूसरों से सहायता की आशा करना या भीख मांगना निरी दुर्बलता का चिन्ह है। इसलिए, स्वयंसेवक बन्धुओं, निर्भयता के साथ यह घोषणा करो कि हिन्दुस्थान हिन्दुओंकाही है। अपने मन की दुर्बलता को बिल्कुल दूर भगा दो। हम यह नहीं कहते की विदेशी लोग यहां न रहे। परन्तु विदेशी लोग इस बात को कभी न भूलें कि वे हिन्दुओं के हिन्दुस्थान में रहते हैं और उन्हें हिन्दुओं के अधिकारों पर आक्रमण करने का कोई अधिकार नहीं है। हमें ऐसी पुरिस्थिति उत्पन्न कर देनी चाहिये कि हमारे सिरपर दूसरे लोग सवार न हों।

संगठन का महत्व

संगठन में एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से कुछ भी कहता नहीं। केवल स्वयं कार्य करता जाता है। जहां बारबार कहने सुनने के मौके आते हों, वहां यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिये कि काम नहीं हो रहा है। संघ के स्वयंसेवक आपस में कुछ नहीं कहते बोलते हैं उनके अन्तःकरण, उनकी भषा हृदय की भाषा होती है। और वे एक दूसरे की ओर केवल देखते हुए, मूक रहते हुए कार्य कर सकते हैं तथा उसे बढा सकते हैं। केवल परस्पर दृष्टिपात से ही वे अपने विचार आपस में एक दूसरे को समझा सकते हैं।